मेरी भागती हुई शाम और तुम्हारी अलसायी सी सुबह
एक असहज सा फोन कॉल जिसमे नाम मात्र भर का परिचय
फिर अचानक एक दिन मैंने तुम्हारी पीली वाली T Shirt पर तुम्हे टोका
मुझे आज भी याद नहीं क्यों, तुम एक कॉन्टैक्ट नंबर ही तो थे
उस उमस भरी दोपहरी में पहाड़ों में सबसे दूर, झील के किनारे मैं एक लकड़ी के घरोंदे में सुकून से थी
न जाने कैसे तुम्हारे साथ बातों का तानाबाना बुनती चली गयी और मैं उसी में उलझ कर रह गयी...
सुकून तो किसी पानी के भाप सा उड़ ही गया
कोई इतनी जल्दी कैसे इतना अपना लग सकता है?
उसे तो ये भी पता था की मुझे कैसी बातें अच्छी लगती हैं
कोई मिले बिना मुझे कैसे ऐसे जान सकता है?
वो तो बिना बोले मेरे एहसास को पढ़ ले रहा था
कोई मुझे ऐसे कैसे अपना बना सकता है? मैंने इजाज़त दी ही कब?
ज़िद ऐसी जैसे मैंने इसी जनम में साथ देने का वचन दे दिया हो.. ढ़ीठ
अब मन करता है की पलट कर उन पलों को लपक कर समेट लूँ और तह लगा कर रख दूँ अपनी संदूक में
और किसी सर्दी की शाम, कश्मीरी शॉल ओढ़े, हम चाय पर मिलें तो उसकी कुछ तहें तुम खोलना और कुछ मैं
उसे तो ये भी पता था की मुझे कैसी बातें अच्छी लगती हैं
कोई मिले बिना मुझे कैसे ऐसे जान सकता है?
वो तो बिना बोले मेरे एहसास को पढ़ ले रहा था
कोई मुझे ऐसे कैसे अपना बना सकता है? मैंने इजाज़त दी ही कब?
ज़िद ऐसी जैसे मैंने इसी जनम में साथ देने का वचन दे दिया हो.. ढ़ीठ
अब मन करता है की पलट कर उन पलों को लपक कर समेट लूँ और तह लगा कर रख दूँ अपनी संदूक में
और किसी सर्दी की शाम, कश्मीरी शॉल ओढ़े, हम चाय पर मिलें तो उसकी कुछ तहें तुम खोलना और कुछ मैं