
मेरे बड़े मामा और मामी जो विगत कई वर्षों से विदेश में रह रहे हैं, पिछले वर्ष एक विवाह में सम्मिलित होने आरा (आरा भोजपुर जिला का एक छोटा सा शहर हैं)आये! मई का महीना था और बिजली की दुर्दशा तो आप सब जानते ही हैं! किसी ने आईडिया दिया की दुपहरिया सिनेमा हॉल में निकली जाए (ऐ.सी का लालच था) अतः घर में काम करने वाले लड़के को टिकेट का इंतज़ाम करने भेजा गया! खबर आई की टिकट मिल गया है, आ जाईये! मामा और मामी चल दिए लेकिन जब वहां पहुंचा तो भौंचक्के रह गए! क्या देखा - लोग चटाई, मचिया, फोल्डिंग वाली कुर्सी, हाथ वाला पंखा, एक दो के हाथ में तो टेबुल फैन भी और लगभग सभी के पास कछुआ छाप की अगर्बात्ति भी थी. मामाजी ने पूछा की भाई..ये सब क्या है? तो पता चला की हॉल के अन्दर मछ्छर बहुत हैं ना, इसलिए, नहीं तो आप सिनेमा देखने से ज्यादा, ताली बजाते हुए पाए जायेंगे! अन्दर का नज़ारा तो और भी अद्भुत था! लोग नीचे चटाई बिछा के बैठे हैं, कोई अपनी फोल्डिंग कुर्सी लगा के बैठा है, किसी की सीट के सामने टेबल फैन भी लगा हुआ है, जिसकी जितनी लम्बी चादर, वैसी व्यवस्था! सोच के आये थे की गर्मी में कम से कम तीन घंटे तो AC में कटेंगे, यहाँ तो पंखे भी ऐसे दोल रहे हों जैसे डैरिया हो गया है! सिनेमा का समय हो चला था, लेकिन इन्हें तेईस तो मिल गया, चौबीस नहीं मिल रही थी. हॉल की किसी कर्मचारी को बुला के पुछा की भैया...चौबीस नंबर किधर है? उसने कहा - "अरे कहियो बईठ जाएये न..का फरक पड़ता है", लेकिन मामाजी की आदत थोड़ी ख़राब हो चुकी थी, कहने लगे की सिनेमा के बीच में अगर किसी ने उठा दिया तब क्या करेंगे? इसपर उस कर्मचारी झुंझला कर पूछा - "केतना लम्मर चाहिए?", "चौबीस", उसने अपने झोले से चौबीस लम्मर का प्लेट निकला और पेंचकस से कास दिया बगल वाली सीट के ऊपर और हाथ झाड कर चल दिया!