Sunday, June 13, 2010
अम्मा, पैसे भेज दिए हैं
''आप इनसे कोई भी निजी सवाल नहीं पूछ सकते, परिवार, बच्चे किसी के भी बारे में नहीं"
"अगर ये खुद कुछ बताएं तो?"
"तो इनकी बातें बहुत ध्यान पूर्वक सुने और उनका ध्यान बांटने की कोशिश करें क्यूंकि आपलोग तो थोड़े देर में यहाँ से चले जायेंगे और इनकी यादें इन्हें जीने नहीं देंगी"
शाम के करीब ७ बजे मैं और अंशुल ऑफिस से भागते भागते उस वृधाश्रम के संचालक से मिलने पहुंचे. अगले इतवार को हमारी पहली विसीट था, हम सभी वृद्ध लोगों को दोपहर का भोजन करवा रहे थे, थोड़ी बहुत उनके काम में उनकी मदद, और उनके साथ मिलकर उनके बगीचे की साफ़ सफाई भी करनी थी. घर से ऑफिस आते जाते मैं रोज़ उस वृधाश्रम को देखती थी, मोटे मोटे लोहे का गेट, ऊँची ऊँची दीवारें....एक दो बार कोशिश की अन्दर झाँकने की....विश्वास नहीं होता था की यहाँ कोई रहता भी होगा. मेरी नानी और दादी तो घर पे रहती हैं, हम सबके साथ...फिर इन्हें यहाँ कौन छोड़ सकता है? मैं तो आज भी छोटे बच्चों की तरह उनके आँचल में छुप जाती हूँ और वो आज भी मुझे गले लगा लेती हैं फिर कोई उनकी ममता से कैसे दूर रह सकता है? कुछ ऐसे ही सवाल अंशुल के मन में थे, हमने हिम्मत की, और जा पहुंचे 'आशीर्वाद' आश्रम. लेकिन ये कैसा अपवाद है? नाम है 'आशीर्वाद' लेकिन उन्हें लेने वाला कौन है यहाँ? कहाँ हैं वो अभागे लोग?
इतवार सुबह ८:३० बजे आश्रम पहुँचने का समय तय हुआ. हम ५ मित्र वहां पहुंचे, व्यवस्थापक महोदय हमें उस बड़े घर के बड़े बरामदे में लेकर गए. फिर किसी को आवाज़ लगायी, बाहर एक बूढ़े बाबा निकले. कुरता पजामा, आँखों पे चश्मा, हमें देख कर कहा - "अच्छा....आप ही हमारे लिए आये हैं...बहुत धन्यवाद" हम सबने ने एक दूसरे का चेहरा देखा, फिर उनके पीछे हो लिए. बाबा हमें बगीचे में लेकर गए और बताया की क्या क्या करना है, फिर सब्जियों का खेत भी दिखाया, वहाँ भी कुछ काम था. हम सब चुप चाप क्यारियों को साफ़ करने में लग गए. धीरे धीरे करके काफी सारे बुज़ुर्ग बाहर निकल कर हमें देख रहे थे और आपस में बातें कर रहे थे. पता नहीं क्या बात कर रहे थे...मैंने कोशिश नहीं की सुनने की. ११ बजे के आस पास बगीचे वाला काम ख़तम करके रसोई में पहुंचे. हमने चूकी भोजन प्रायोजित किया था इसलिए वहां का रसोइया ही खाना बना रहा था, हम बस थोड़ी बहुत उसकी मदद कर रहे थे. भोजन का समय हुआ, धीरे धीरे सभी लोग हॉल में आ गए, "अम्मा को ले आओ कोई", किसी ने कहा, बूढी 'अम्मा' किसी का सहारा लेकर हॉल में आ रही थीं. सफ़ेद और छोटे छोटे नीले छींट वाली सूती साडी, पूरे चेहरे पर झुर्रियां, गले में तुलसी जी की माला...ये तो बिलकुल मेरी नानी जैसी दिखती हैं. 'अम्मा' आकर एक कुर्सी पर बैठीं, उनको नीचे बैठने में दिक्कत होती थी, पीठ झुक चूकी थी. मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छू लिए, उन्होंने सर पे हाथ रख दिया. लेकिन ये क्या? ये स्पर्श भी बिलकुल मेरी नानी और दादी जैसा है. फिर किसी ने उनसे कहा "आज ये बच्चे आये हैं हमारे लिए". 'अम्मा' कुछ नहीं बोलीं. हम सबने भोजन परोसना शुरू किया, थोडा बहुत हंसी का दौर चला. अच्छा लगा देख कर. सभी आपस में एक परिवार की तरह रह रहे थे, कितनी देखभाल करते हैं सब एक दूसरे की, इतना प्यार...
खाने के बाद मैं 'अम्मा' को पकड़कर बाहर बगीचे में ले गयी, नेपथ्य में ये भी रील चल रही थी - "आप इनसे कोई भी निजी सवाल नहीं पूछ सकते, परिवार, बच्चे किसी के भी बारे में नहीं".
'अम्मा' मुझसे मेरे बारे में पूछने लगीं, परिवार के बारे में बताते बताते अचानक से से मैं बोल पड़ी -"आप मेरी नानी और दादी जैसी दिखती हैं", कुछ गलत तो नहीं बोल दिया मैंने?
उन्होंने पूछा, "तुम्हारी नानी अपने घर पर रहती हैं?", "जी", "मामा मामी के साथ?", "जी". 'अम्मा' चुप हो गयीं और मैं भी. मैं इधर उधर देखने लगी, फूलों की बातें करने लगी. कोने से देखा तो 'अम्मा' अपने आँचल से अपनी आँखें पोंछ रही थीं और कहा "अजय भी फोने करता है" "अम्मा, पैसे भेज दिए हैं", मैंने अनसुना कर दिया और क्यारियों में कुछ खोदने लगी.
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हम क्या कहे अब इस पे...ऐसे लोगों से चिढ़ होती है जो बड़े बुजुर्ग को ऐसे छोड़ देते हैं कहीं किसी वृधाश्रम में.
ReplyDeleteबच्चों को दादी , नानी का प्यार ही तो चाहिए और अगर जो लोग अपने माँ बाप को कहीं किसी वृधाश्रम में रख देते हैं तो वो अपने बच्चों को उस प्यार से वंचित कर रहे हैं.
और वैसे भी, जब हम बच्चे थे तो हमारे पिताजी, माँ ने किस तरह हमारा ख्याल रखा..हमें भी उनके उस प्यार का सम्मान करना चाहिए और ये देखना चाहिए की बुढ़ापे में उन्हें किसी भी तरह का कष्ट न हो..
ज्यादा क्या लिखू मैं..
बहुत ही मार्मिक चित्रण....... एक सांस में पूरा पढ गये... बिना ब्रेक के।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखती है स्तुति....
बहुत अच्छा.
बुजुर्ग जीवन के सच!
ReplyDeleteoh bada hi maarmik...zindagi ki bhagdaud me kahin aisa na ho ki rishte hampe bhari hone lage...khaskar wo jo rishton me sarvochch sthan par ho...
ReplyDeleteमार्मिक वर्णन । क्या हम इतने गिर सकते हैं कि अपने माँ बाप ही हम पर बोझ लगने लगें ?
ReplyDeleteबहुत मार्मिक..क्या कहें!!
ReplyDeleteसही कहा स्तुति जी, माँ बाप दो औलाद को पाल सकता है बड़ा कर सकता है पर दो औलादें अपने माँ बाप को नहीं, बिडंबना है हमारे समाज की ऐसे औलादो की, और लानत है ऐसी औलादों पर :(
ReplyDeleteज़िन्दगी हमेशा टुकडो में मिलती है..
ReplyDeleteआप ने इस लेख के जरिये अवहेलना झेल रहे बुजुर्गों की तरफ ध्यान दिलवाया है ...आपको कहा गया कि घर परिवार से सम्बंधित प्रश्न उनसे न पूछें , यानि उनकी दुखती रगें न छेड़ें ...जिन्हें उन्होंने पूरे मनोयोग से पाला होगा ...वही उन्हें इस मुकाम पर ला खडा करेंगे ...कौन सोच सकता है ..अब न कोई भविष्य है न ही यादों का भूत पीछा छोड़ता होगा , बहुत दुःख दायक संवेदनाओं को छेड़ता हुआ लेख ।
ReplyDeleteKaafi gambhir vishay hai , achchhi sachchi baat...
ReplyDeletetouchy....
ReplyDeleteआप भानुमती नहीं अपने ब्लॉग का नाम स्तुति का पिटारा कर दीजिये , सब कुछ तो है आपके pitare में .marmsparshi post.
ReplyDeleteकल मेरे पापा ने ये पोस्ट पढ़ी, और पढकर मुझे फोन किया..गला रुंधा हुआ था, शब्द नहीं निकल रहे थे..सिर्फ इतना कहा .."Thank You Beta.." इन तीन शब्दों ने मुझे जो बोध करवाया है, वो मैं शब्दों में नहीं बयान कर सकती.
ReplyDeleteहम समझ सकते हैं स्तुति :)
ReplyDelete@आशीष जी,
इसलिए तो हमने अपने ब्लॉग पे ई स्तुति के ब्लॉग का नाम "स्तुति का पिटारा" रखा है ;)
और ज्यादा तकलीफ तब होती है जब कोई इसको "justify" करने की कोशिश करता है. मैं ऐसे ही एक कपल को जानती हूँ(जानती थी, अब उनको और जान ने की इच्छा नहीं है) जिन्होंने अपने पिता को वृधाश्रम में रखा है, उनकी पत्नी से अपने ससुर का तौर तरीका बर्दाश्त नहीं होता. सुबह उठ कर पूजा पाठ, टाइम पर खाना, चाय इत्यादी. कहती हैं "ये सब मेरे से नहीं होता, I am working you know".
ReplyDelete:( :( :(
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी ..क्या कहें ....
ReplyDelete....मैं जब तुमसे मिला था तो तुमने कुछ तस्वीरें अपने कैमरे में दिखाईं थी स्तुति... लेकिन तुम्हारा लेखन तुम्हारी सबसे बेहतर तस्वीर है...। अच्छा लगा पढ़कर...। बधाई।
ReplyDelete"तुम्हारी नानी अपने घर पर रहती हैं? aankhon ko dhundhla gaya yahi ek vakya.sarthak lekhan...
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट, बस एक बात जानने की इच्छा है कि यह कहाँ का वर्णन है? उसी के बाद टिप्पणी करने का मन है।
ReplyDeleteजी, नॉएडा में एक वृधाश्रम है, यह वहीँ की घटना है.
ReplyDeleteAs i had earlier said, u are a great story teller.
ReplyDeleteBut apart from just the story, u have touched the emotional aspects brilliantly and vividly.
Carry on Stuti..
@Vinamra - Thanks, but I just wish it was not a true story.
ReplyDeleteबस एही गलत बात है… अब आँखवा से लोर हटेगा तबे न कुछ देखाई देगा... अईसन पोस्ट लिखोगी त अंदाजे से हमहूँ कमेंट लिख पाएंगे... सच कहें त इसमें कुछो लिखना अम्मा जी को अऊर छोटा करने जईसा है...
ReplyDeleteआज काहे तो दुष्यंत कुमार जी का कविता तुमपर निछवर करने का मन कर रहा है
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
बिहारी चाचा, बहुत बड़ा बात लिख गए आप मेरे लिए. क्या कहें...बस आशीर्वाद दीजिए आप सब.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढ़ते हुए न जाने क्यों - मां रिटायर होती है - नाटक याद आ रहा था. मार्मिक अभिव्यक्ति.
ReplyDelete2 boond le lijiye is par....... :( :(
ReplyDeleteshukriya kahne ka man hua
का कहें....देश तरक्की न कर रहा है.....तरक्की का निशानी इही सब तो है....
ReplyDeleteकोई बात नहीं ...सब वहीँ जा रहे हैं....पोता भी कभी दादा बनेगा....