Saturday, June 19, 2010
चार शरीफ लडकियां
निहायत ही शरीफ लोगों का मोहल्ला है मेरा! शरीफ मोहल्ला, शराफत टपकाते हुए लोग और शराफत से लथ-पथ हम चारों.
जुलाई का महिना था, तीन दिन से बरसात हो रही थी, हर जगह पानी भर गया था. शाम के समय, मैं, सीमा(मेरी पकिया सहेली), गुडिया दी(सीमा की दीदी) और नीतू दी(मेरी चचेरी दी). हम चारों शाम होते ही किसी एक के घर पे मिलते थे, थोड़ी बतकही, थोड़ी पड़ोसन की चुगली और थोड़ी बहुत बड़ी बड़ी बातें. उस दिन मेरा आठवीं कक्षा का रिजल्ट निकला था, समोसे लेके मैं और नीतू दी सीमा के घर पहुंचे. खा रहे थे, टी वी देख रहे थे...और बाकी सब बातें तो उसके साथ चलती ही रहती थीं. चुगली इत्यादि.
टी वी पे चिरंजीवी की कोई पिक्चर आ रही थी, . उसमे वो सिगरेट के धुएं को बड़े स्टाइल से उड़ा रहा था, अचानक सीमा ने मुझसे पूछा - "ई सिगरेट पीने में क्या मजा आता होगा रे?" "मुझे क्या पता, मैंने कभी थोड़े पी है". धीरे धीरे इस उत्सुकता ने हम सबमे सिगरेट पीने की लालसा जगा दी. उद्देश्य था मात्र ये देखना की उसमे है क्या? आखिर क्या बात है इसमें? लेकिन सिगरेट आएगा कहाँ से? दूकान से? और लाएगा कौन? बलि का बकरा तो हमें ही बनना था सो बन गए. अब बात आई की इस काम को कैसे अंजाम दें की किसी को हमपर शक ना हो. अरे भाई...आखिर शरीफों का मोहल्ला है, यू नो!
सब जगह पानी लगा हुआ, हम जाएँ कैसे? लेकिन ये साली सिगरेट की तलब जो ना करवाए. घुटने भर पानी में हेलते हुए चल दिए एक झोला और छाता लिए हुए. झोला इस पूरे नाटक तो थोडा 'नार्मल' लुक देने के लिए था. रास्ते भर हम ये बतियाते रहे की उस गुमटी पर बोलना क्या है? उ ससुरा गुमटिया वाला मामाजी को जानता है, कहीं बक दिया तो? पानी हेलते हालते पहुंचे तो गुमटी बंद. अब क्या करें? वापस कैसे चले जाएँ? सरदार क्या कहेगा? खाली हाँथ आये? हम दोनों ने तय किया की पास वाले मार्केट जाकर ले आयेंगे. १.५ की.मी पानी, पांकी में टहलते हुए मार्केट पहुंचे, गुमटी खुली देख के आँखें ऐसी चमकी जैसे चाईनीज टार्च. गुमटी पर पहुंचते ही मैंने कहा ..."दू ठो सिगरेट दे दीजियेगा", "कौन बाला चाहिए?" "अरे सीमा...नानाजी कौन सा सिगरेट बोले थे रे लाने के लिए....??" "सायद विल्स बोले थे" "हाँ हाँ....दू ठो विल्स दे दीजिये" (विल्स इसलिए क्यूंकि टी वी पे बहुत एड देखा था और कुछ 'ऊँचे' लोगों को पीते हुए देखा था).
जैसे ही दूकान वाला सिगरेट हाथ में धराया, ऐसा लगा मानो ओलंपिक का टार्च हाथ में आ गया हो. दांत निपोरते हुए उसको झोला में रखकर मैंने कहा.."ई बरसतवा में सब सब्जीयो वाला भाग गया है...." (थोडा और 'नार्मल' बनाने के लिए)
लौटते समय इतनी जल्दी थी जैसे बच्चे को मेडल मिला हो और माँ को दिखाना हो ..."अम्मा...अम्मा.....ई देखो अम्मा...हमार ईनाम" "अरे हमार बिटवा....."
घर पहुंचे, वहां पहले से नीतू और गुडिया दी पलकें बिछाए हमारा इंतज़ार कर रही थीं. "ले आई??" "और न ता का ..... हम दुन्नो जायेंगे और खाली हाथ आयेंगे" खुद की पीठ थपथपाते हुए! "जल्दी चलो रूम में...हमलोग यहाँ पे पूरा सेट्टिंग कर लिए हैं". रूम में जाते ही धीरे से दरवाजा चटकाया गया, सिगरेट सुलगाया गया, एक सिगरेट में मैं और सीमा, और एक में नीतू दी और गुडिया दी. "अरे जरा स्टाइल से पीयो रे...क्या देहाती टाइप धका-धक् फूंके जा रही हो?" "ओके ओके ...ये लो...". हम छल्ला बनाने का प्रयास भी करते रह गए लेकिन कुछ बना नहीं. मिला जुला कर कुछ भी नहीं कर पाए और ये भी नहीं तय कर पाए की इसमें ऐसा क्या है? सिवाए धुंआ छोड़ने के और फेंफडे जलने के ये करती क्या है? क्या? सुकून...? न भैया...हमें तो वो न मिला. खैर...फूंकने में व्यस्त थे तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, शाम का समय था, सीमा की माँ शाम को दीया दिखाती थीं. अब क्या करें?? पकडे गए तो? क्या कहेंगी? लेकिन इतने मेहनत की कमाई को ऐसे कैसे फेंक दें? वो खटखटाए जा रही थीं, मन मसोस कर हमने सिगरेट बूझा दिया, साड़ी खिड़कियाँ खोल दी. आंटी जी रूम में आयीं, थोडा देर बाद बोलीं...ये रूम में कैसी बदबू है? "बदबू? कहाँ है बदबू?? अरे वो बाहर पानी लगा है ना...वहीँ से होगा" लेकिन तब तक तो वो सारा माजरा समझ चुकी थीं. आंटी बोलीं - "शरीफ घर की लडकियां यही सब करती हैं क्या? ये लाइन पूरी होने से पहले हम चारो वहां से गायब हो चुके थे. मैं और नीतू दी घर की और भागे..सीमा छत वाले कमरे में अपनी किताबें लेके भागी. उसके बाद तीन दिन तक हम उसके घर की और देखा तक नहीं.
तीन दिन बाद फिर वही चौकड़ी...चाय...चुगली और चिरंजीवी...बस सिगरेट नहीं थी. आखिर शरीफ घर की लडकियां ऐसा थोड़े करती हैं?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
खाँसी नहीं आयी? पहली बार में ही छल्ले उड़ाने के सपने वाह। बढिया लिखा है भाई, बचपन के दिन याद आ गए। लगे रहो मुन्नी भाई।
ReplyDeleteअब पता चला की खांसी क्यूँ नहीं आई, क्यूंकि धुंआ अंदर नहीं लिया था, बस कुल्ला कर लेते थे. :D
ReplyDeleteहा हा वाकई आपने हमें भी अपने बचपन के दिन याद दिला दिये, जब हम अपने दादाजी के बीड़ी के फ़ेंके गये ठूँठ को घर के मंदिर की माचिस से जलाकर पीते थे, और एक बार दादी जी ने रंगे हाथों पकड़ लिया था :)
ReplyDeleteहमको तो पहिले से शक था ई स्तुति बर्बाद लड़की है....देखो सिगरेट पीती है.....और लड़ती भी है ;)
ReplyDeleteई स्तुतिया को अब हम का कहे ;) :D
इस्तुति बेटा... हमरा चस्मावा का पावर तनी गड़्बड़ा गया है एही से हम ठीक से पध नहीं पाए कि तुम का लिखी हो अबकी बार... अगिला पोस्ट लिखला तक चस्मवा बन जाएगा, त आराम से पढकर जवाब देंगे... जीओ!
ReplyDeleteधमाल पोस्ट!! :)
ReplyDelete- आँखें ऐसी चमकी जैसे चाईनीज टार्च...
- जैसे ही दूकान वाला सिगरेट हाथ में धराया, ऐसा लगा मानो ओलंपिक का टार्च हाथ में मिल गया हो।
@चाचा, कौनो बात नहीं. आप आराम से पढ़ लीजियेगा..वैसे हम ये भी क्यूँ लिख रहे हैं...खैर जब चश्मा बन के आएगा तो ये भी पढ़ लीजियेगा. :)
ReplyDeleteये तो अच्छा हुआ की सीमा की माँ आ गईं थीं और उनका ये कहना कि शरीफ घरों की लड़कियां यही सब करतीं हैं विवाद का विषय नहीं बना. कहीं सीमा की पिताजी अथवा भाई आ जाते तो उस समय तो नहीं आज जरूर हम इस मनमोहक पोस्ट से वंचित रह जाते. भाई या पिता के आने की स्थिति में आज इसमें भी स्त्री-पुरुष का विभेद देख लिया जाता. खैर..................
ReplyDeleteपोस्ट बहुत ही अच्छी लगी.............लड़का हो या लड़की बचपन में इस तरह की शराफत सभी दिखा लेते हैं.....
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
cute post, pasand aai...... mast hai
ReplyDeleteउफ़ ऐसी ऐसी हरकतें... आठवीं क्लास में ही.... :)
ReplyDeleteKudos!!!
ReplyDeleteमेरा एक दोस्त चार साल तक सिगरेट पीता रहा.. एक दिन अचानक से बोला कि आज से बंद और सच में दोबारा कभी नहीं लिया.. हम चक्कर में, कि सिगरेट जैसी लती चीज ऐसे ही कोई कैसे बंद कर सकता है? बाद में पता चला कि चार साल तक तुम्हारे तरह ही कुल्ला करता रहता था.. :D
बहुत सुन्दर व रोचक वर्णन । पढ़कर आनन्द आ गया, पूरा चित्र आँखों के सामने खिंच गया ।
ReplyDeleteबहुत साहसी लड़की हो जी तुम. हम तो तुम्हारे साहस पर फिदा हो गए. वाह गुमटी से जाकर सिगरेट खरीदना मजाक बात है क्या? हमलोगों ने भी इलाहाबाद हॉस्टल के बाहर गुमटी पर खड़े होकर पान खाया है... उधर लल्ला चुंगी पर लड़कों की भीड़ होती थी और कोई लड़की ऐसे ही खड़े होने का साहस नहीं करती थी, पर हमने वहाँ खड़े होकर पान खाया... सिगरेट कभी ट्राई नहीं किया...
ReplyDeleteबहुत शरीफ़ लड़की हो भाई तुम तो।
ReplyDeleteकैसे शराफ़त से अपनी बात कह दी।
मजेदार किस्से। शानदार अन्दाज। बिन्दास!
wah-wah-wah............maja aa gaya.aise laga hamari kahani tumhari jubani.
ReplyDelete@आराधना जी-गुमटी पर खड़े होकर पान खाना...बस कल्पना ही कर रहे हैं की आप चुना कत्ता लगवा कर बीड़ा मुह में डाल रही होंगी...हा हा ...
ReplyDeleteयहाँ तो लगता है हम सब ही इसी गली से गुजरे हैं...मैं अकेले नहीं थी. इस पोस्ट को डालने में थोडा संकोच कर रही थी की लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में....लेकिन यहाँ तो अलग ही माहोल है. :D
ReplyDeleteअब हम का कहे ?
ReplyDeleteचुप्पे रहना ही ठीक !!
अरे काहे...बोलिए कुछ? :)
ReplyDeleteभाई सब से पहले तो आपको बहुत बहुत बधाई ..................आपने अपना पिटारा बहुत बढ़िया सजा रखा है ...................खास कर नीबू - मिर्च तो एकदम ही सटीक लटकाएं है !
ReplyDeleteआज पहली बार आना हुआ आपके ब्लॉग पर ..........अब तो खैर आते रहेगे !
बाकी आपकी शराफत के तो हम कायल हो गए ! क्या कहने भाई ...........बहुत बढ़िया !
@ शिवम जी- धन्यवाद! कम ही लोगों ने उस 'निम्बू-मिर्ची' पे कुछ कहा है. :) अब क्या करें...बड़े बड़े माल के आगे एक छोटी सी गुमटी है...कहीं कोई नजरा न दे...इसलिए सब जोग टोटका करती रहती हूँ. और जहाँ तक रही बात शराफत के, तो वो तो हम बचपन से ही हैं, आज भी कोई कमी नहीं आई है ;-D
ReplyDeleteइस्तुति बचिया...याद पर जोर डाल कर जेतना हो सकता था,लिखे हैं...पुराना याद को फिर से जीना अहुत तकलीफ़ देता है...देखो पौने चार बज गया...
ReplyDeleteHa ha ha...bindas post.. lekin kabhi Beedi try ki hai?
ReplyDelete13-14 की उम्र में ही छल्ले उडाने की तैयारी
ReplyDeleteकमाल है!!!!!!
अरे वाह ....क्या मस्त चित्रण किया है स्तुति जी आपने ....लड़कियाँ बिगड़ गयीं :-)
ReplyDeleteबचपन की जुगाड़ों की याद दिला दी
kya likha hai!ekdum jhakass1111111111111.pata nahin kitni baar padh chuki hoon .apne chote bhaiyon ko bhi padhwa diya hai .unki gang leader main thi aur humne to whisky bhi try kari thi
ReplyDelete(papa ki bottle se chura kar)per cigrate humne bhi kharidi thi vijay ki dukan se woh bhi wills ki.mujhe to dono ka taste samajh nahin aaya tha.
कमाल है..तुमरा कहने से हम भर रात जाग कर लोहा सिंह अऊर खदेरन का मदर का बारे में लिखबो किए अऊर तुम गायब... ई बहुत गलत बात है...
ReplyDelete@अंजू जी - अच्छा लगा जान कर की आपनी भी 'विल्स' ली थी. यहीं हो गया की बड़े लोग वहीँ पीते हैं. :-D
ReplyDeleteमैंने ये सारी टिप्पणियाँ सीमा को फोन पे सुनायीं...हम दोनों हंसते हंसते फिर से उसी पुराने गलियारे में लौट गए.
क्या नज़ारा दिखाया है...हमें भी लग रहा था... अब कीचड़ में पैर गया,तब गया पर बहादुर लड़की सिगरेट लेकर ही लौटी :)..मजा आ गया पढ़कर.
ReplyDeletehmmmmmmmmmmmmm...................
ReplyDeleteसौ जोड़ दस प्रतिशत बिल्कुल सच्ची बात है- शरीफ घर की लडकियां ऐसा थोड़े ही करती हैं !!
ReplyDeleteका पोस्ट लिखे हैं आप. वाह! भाषा पर पकड़ त गजबे है. हँसते-हँसते पढ़े हैं.
ReplyDelete'नार्मलता' लाने के लिए जो-जो काम किया ऊ सब त बवाल था.
सिगरेट पीने का ऐसा वर्णन मुश्किल है. बहुते.
दो चीज़ें जो उभर के आती हैं..
ReplyDelete१. सिगरेट की तलब का बखूबी चित्रण .."लेकिन ये साली सिगरेट की तलब जो ना करवाए..
२. आने, जाने और सिगरेट पाने का शानदार वर्णन.
मेरे ख्याल से अगर पकडे जाने के बाद के माहौल की थोड़ी और चुटकी ली जाती तो मज़ा ही आ जाता..
यादें अक्सर ऐसे किसी रोचक गली में हांक कर ले जाती हैं जहां पता चलता है कि पहले से कई लोग खड़े हैं...देखिए कैसे कई लोगों को अपनी बचपन की हरकतें याद हो आईं :)
ReplyDeleteबहुत धांसू-फांसू और हांसू पोस्ट है...एकदम रापचीक। मजा आ गया।
शरीफ़ होना लड़कियों का जन्मसिद्ध अधिकार है
ReplyDeleteजहाँ चार-यार मिल जाएँ वहीं महफ़िल गुलज़ार है
सिगरेट के वाक़यात का एक अलग ही संसार है
जिज्ञासु बहुत, स्वीकार करने भर को कम ही ईमानदार हैं
bahut badiya
ReplyDelete